लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया
ठाकुरदीन-माल-का-माल ले
गया, दो आदमियों
को चुटैल कर
गया। इसी से
मैं चोरों के
नगीच नहीं गया
था। दूर ही
से 'लेना-देना'
करता रहा। जान
सलामत रहे, तो
माल फिर आ
जाता है।
भैरों को बजरंगी
पर शुभा न
था, न नायकराम
पर; उसे जगधार
पर शुभा था।
शुभा ही नहीं,
पूरा विश्वास था।
जगधार के सिवा
किसी को न
मालूम था कि
रुपये कहाँ रखे
हुए हैं। जगधार
लठैत भी अच्छा
था। वह पड़ोसी
होकर भी घटनास्थल
पर सबसे पीछे
पहुँचा था। ये
सब कारण उसके
संदेह को पुष्ट
करते थे।
यहाँ से लोग
चले, तो रास्ते
में बातें होने
लगीं। ठाकुरदीन ने
कहा-कुछ अपनी
कमाई के रुपये
तो थे नहीं,
वही सूरदास के
रुपये थे।
नायकराम-पराया माल अपने
घर आकर अपना
हो जाता है।
ठाकुरदीन-पाप का
दंड जरूर भोगना
पड़ता है, चाहे
जल्दी हो, चाहे
देर।
बजरंगी-तुम्हारे चोरों को
कुछ दंड न
मिला।
ठाकुरदीन-मुझे कौन
किसी देवता का
इष्ट था। सूरदास
को इष्ट है।
उसकी एक कौड़ी
भी किसी को
हजम नहीं हो
सकती, चाहे कितना
ही चूरन खाए।
मैं तो बदकर
कहता हूँ अभी
उसके घर की
तलासी ली जाए,
तो सारा माल
बरामद हो जाए।
दूसरे दिन मुँह-ऍंधोरे भैरों ने
कोतवाली में इत्ताला
दी। दोपहर तक
दारोगाजी तहकीकात करने आ
पहुँचे। जगधार की खानातलाशी
हुई, कुछ न
निकला। भैरों ने समझा,
इसने माल कहीं
छिपा दिया, उस
दिन से भैरों
के सिर एक
भूत-सा सवार
हो गया। वह
सबेरे ही दारोगाजी
के घर पहुँच
जाता, दिन-भर
उनकी सेवा-टहल
किया करता, चिलम
भरता, पैर दबाता,
घोड़े के लिए
घास छील लाता,
थाने के चौकीदारों
की खुशामद करता,
अपनी दूकान पर
बैठा हुआ सारे
दिन इसी चोरी
की चर्चा किया
करता-क्या कहूँ,
मुझे कभी ऐसी
नींद न आती
थी, उस दिन
न जाने कैसे
सो गया। अगर
बँधावा न दूँ,
तो नाम नहीं।
दारोगाजी ताक में
हैं। उसमें सब
रुपये ही नहीं
हैं असरफियाँ भी
हैं। जहाँ बिकेगी,
बेचनेवाला तुरंत पकड़ा जाएगा।
शनै:-शनै: भैरों
को मुहल्ले-भर
पर संदेह होने
लगा। और, जलते
तो लोग उससे
पहले ही थे,
अब सारा मुहल्ला
उसका दुश्मन हो
गया। यहाँ तक
कि अंत में
वह अपने घरवालों
ही पर अपना
क्रोधा उतारने लगा। सुभागी
पर फिर मार
पड़ने लगी-तूने
मुझे चौपट किया,
तू इतनी बेखबर
न होती, तो
चोर कैसे घर
में घुस आता?
मैं तो दिन-भर दौरी-दूकान करता हूँ;
थककर सो गया।
तू घर में
पड़े-पड़े क्या
किया करती है?
अब जहाँ से
बने, मेरे रुपये
ला, नहीं तो
जीता न छोड़ईँगा।
अब तक उसने
अपनी माँ का
हमेशा अदब किया
था, पर अब
उसकी भी ले-दे मचाता-तू कहा
करती है, मुझे
रात को नींद
ही नहीं आती,
रात भर जागती
रहती हूँ। उस
दिन तुझे कैसे
नींद आ गई?
सारांश यह कि
उसके दिल में
किसी की इज्जत,
किसी का विश्वास,
किसी का स्नेह
न रहा। धान
के साथ सद्भाव
भी दिल से
निकल गए। जगधार
को देखकर तो
उसकी ऑंखों में
खून उतर आता
था। उसे बार-बार छेड़ता
कि यह गरम
पड़े, तो खबर
लूँ; पर जगधार
उससे बचता रहता
था। वह खुली
चोटें करने की
अपेक्षा छिपे वार
करने में अधिाक
कुशल था।
एक दिन संधया
समय जगधार ताहिर
अली के पास
आकर खड़ा हो
गया। ताहिर अली
ने पूछा-कैसे
चले जी?
जगधार-आपसे एक
बात कहने आया
हूँ। आबकारी के
दारोगा अभी मुझसे
मिले थे। पूछते
थे-भैरों गोदाम
पर दूकान रखता
है कि नहीं?मैंने कहा-साहब,
मुझे नहीं मालूम।
तब चले गए,
पर आजकल में
वह इसकी तहकीकात
करने जरूर आएँगे।
मैंने सोचा, कहीं
आपकी भी सिकायत
न कर दें,
इसलिए दौड़ा आया।
ताहिर अली ने
दूसरे ही दिन
भैरों को वहाँ
से भगा दिया।
इसके कई दिन
बाद एक दिन,
रात के समय
सूरदास बैठा भोजन
बना रहा था
कि जगधार ने
आकर कहा-क्यों
सूरे, तुम्हारी अमानत
तो तुम्हें मिल
गई न?
सूरदास ने अज्ञात
भाव से कहा-कैसी अमानत?
जगधार-वही रुपये,
जो तुम्हारी झोंपड़ी
से उठ गए
थे।
सूरदास-मेरे पास
रुपये कहाँ थे?
जगधार-अब मुझसे
न उड़ो, रत्ताी-रत्ताी बात जानता
हूँ, और खुश
हूँ कि किसी
तरह तुम्हारी चीज
उस पापी के
चंगुल से निकल
आई। सुभागी अपनी
बात की पक्की
औरत है।
सूरदास-जगधार, मुझे इस
झमेले में न
घसीटो, गरीब आदमी
हूँ। भैरो के
कान में जरा
भी भनक पड़
गई, तो मेरी
जान तो पीछे
लेगा,पहले सुभागी
का गला घोंट
देगा।